4 मार्च हिंदी के मशहूर कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु ( 1921-1977 ) का जन्मदिन है। उन पर मैंने और बहुतों ने बहुत बार लिखा है ,लेकिन उन पर और लिखा जायेगा ,लगातार लिखा जाता रहेगा ,क्योंकि वह कुछ खास थे। उनकी खासियत की चर्चा बहुतों ने की है। बहुतों ने अपने -अपने नजरिये से उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को देखने -दिखाने की कोशिश की है। लेकिन अभी भी बहुत कुछ ऐसा है ,जिसका अनावरण नहीं हुआ है। आने वाली पीढ़ियां शायद इसका अन्वेषण करेगी।
अनेक लोगों की तरह मुझे भी इस बात का थोड़ा गुमान है कि कुछ समय केलिए रेणुजी के निकट -संपर्क में रहा। कॉलेज के दिनों में उनकी कहानियां और उपन्यास पढ़े थे और उनका मुझ पर प्रभाव था। उन दिनों बिहार में जेपी आंदोलन चल रहा था ,जिसमे उनकी सक्रियता और गिरफ्तारी के खूब चर्चे थे। उन दिनों दिनमान हिंदी का चर्चित साप्ताहिक था ,जिसमे रेणु की राजनैतिक सक्रियता और गिरफ़्तारी को लेकर लम्बी रपट छपी थी। फिर रेणुजी का लिखा दिलचस्प बाढ़ का ब्यौरा भी ,जो दिनमान में ही प्रकाशित हुआ था। इन्ही दिनों रेणुजी से पटना कॉफी हाउस में मिलना हुआ। . पत्रकार और समाजवादी कार्यकर्त्ता सूर्यनारायण चौधरी ने उनसे परिचय कराया। परिचय का आधार था, जनता साप्ताहिक में छपा मेरा एक लेख जिसकी चर्चा जयप्रकाश जी ने गाँधी मैदान के अपने भाषण में की थी। . रेणुजी ने उत्साह दिखलाया और फिर कुछ बातें की , कहाँ से आते हैं ,कहाँ रहते हैं जैसी। और फिर चुप . अपने स्वभाव में वह बहुत मुखर नहीं थे . वाचाल तो दूर -दूर तक नहीं। हाँ , जब खुलते थे ,तब खूब खुलते थे। . फिर तो उन जैसा वाचक मिलना मुश्किल था। अपने किस्म की सौम्यता तो उनमे थी ही , सबसे ऊपर होता था उनका समाजवादी आभिजात्य ,जिसका विवेचन मुश्किल है। अज्ञेय के बाद हिंदी लेखकों में कोई आभिजात्य था ,तो वह रेणु थे।
एक दफा रेणुजी मेरे आवास अर्थात उस कमरे तक आये ,जिसे मैं डेरा कहता था। साथ में प्रोफ़ेसर रामबुझावन सिंह जी थे। जब वह आये मैं खाना पका रहा था। लजाने की कोशिश की ,लेकिन उन्होंने इसका मौका नहीं दिया। मेरे पास उन्हें बैठाने केलिए कुर्सी तो क्या ,मोढ़ा भी नहीं था। चौकी पर वह बैठे। अब वह सब याद करते अजीब लगता है ,मानो स्वप्न को याद करता होऊं।
जब वह बीमार थे ,हमलोग प्रतिदिन पीएमसीएच जाते। आखिर मार्च में ,23 या 24 को ,वह भर्ती हुए थे। बेहोशी के लिए जो एंथिसिआ दिया गया गया था ,उसका असर उतरा ही नहीं। वह फिर होश में नहीं आये। 11 अप्रैल (1977 ) को जब सोया हुआ था ,तभी रामबुझावन बाबू आये , रेणुजी नहीं रहे। हिंदी साहित्य सम्मेलन चलो। अपने मित्र तरुण चौहान के साथ सम्मेलन भवन पहुंचा ,तब अर्थी चल चुकी थी। थोड़ी दूरी ही लोग तय कर पाए थे। तेजी से बढ़ कर हम साथ हुए। यात्रा में कुल जमा सात या नौ लोग ही थे। घर के लोगों के अलावे उनके अंतरंग रामवचन राय जी थे। . उनके समधी रजनी बाबू , प्रोफ़ेसर रामबुझावन बाबू और हम दोनों मित्र। बांस घाट जाते -जाते लोग जुटने लगे। फिर तो हुजूम उमड़ आया। सुबह के आठ बजे ,बांस घाट के पास की एक गुमटी पर ही रेडियो से हमने समाचार सुने। जयप्रकाश नारायण ,राष्ट्रपति आदि उदगार व्यक्त कर रहे थे। .गंगा घाट पर कलम का समाजवादी सिपाही बांस की काठी पर चिरनिद्रा में सोया था। प्रेमचंद के बेटे अमृत राय ने पिता की आखिरी यात्रा के बारे में लिखा है -‘ ग्यारह बजते -बजते बीस -पचीस लोग किसी गुमनाम आदमी की लाश लेकर मणिकर्णिका की ओर चले .’ कमोबेश ऐसा ही दृश्य था . मणिकर्णिका और बांस घाट में बहुत अंतर नहीं था। हाँ , बकौल अमृत राय प्रेमचंद की अर्थी देख एक राही ने दूसरे से पूछा था -‘ के रहल ? दूसरे ने जवाब दिया – कोई मास्टर था ! ‘ रेणु के मामले में स्थिति थोड़ी अलग थी . भीड़ देख एक रिक्शा वाले ने पूछा -कौन थे ? मैंने जब बताया और पूछा कि जानते हो ? तब उसने प्रश्न में ही कहा – तीसरी कसम सिनेमा वाले न ?
तो प्रेमचंद मास्टर थे और रेणु सिनेमा वाले। हिंदी लेखकों की यही नियति होती है।
(फेसबुक से साभार)